चल यार...फिर बैठें कहीं अपनों के साथ में,
फिर देखें खुद को बीते सपनों के साथ में..
फिर एकदूजे को झूठे वादों से चल बहलाते हैं,
चल ना साथ...फिर खुली सड़क पर खुलकर मुस्कुराते हैं...
फिर एकदूजे को झूठे वादों से चल बहलाते हैं,
चल ना साथ...फिर खुली सड़क पर खुलकर मुस्कुराते हैं...
फिर चल कहीं बेमतलब चलते-चलते रुक जाते हैं,
किसी चाय वाले से भरी बरसात में चाय बनवाते हैं..
चल बारिश से बचने उस पेड़ के नीचे खड़े रहते हैं,
उसके पत्तों से गिरती बूंदों में फिर साथ भीग जाते हैं..
किसी चाय वाले से भरी बरसात में चाय बनवाते हैं..
चल बारिश से बचने उस पेड़ के नीचे खड़े रहते हैं,
उसके पत्तों से गिरती बूंदों में फिर साथ भीग जाते हैं..
(लिखने वाले साहब के लेखक तो नहीं, लेकिन हाँ आशिक बनने के पूरे स्कोप हैं..)
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