कि यूं जो बात करें बीते पल की, देखते हैं कुछ-कुछ छुट सा गया है,
वो बचपन जो खिलखिलाता था गलियों में, वो कहीं लुट सा गया है.
वो मिटटी के खिलौने थे जिनसे अपना सच्चा घर बनता था,
सुना है एक सदी से.....वो घर भी अब टूट गया है.
मेरे हाथों में गिल्ली और डंडे होते थे, जेबों में कंचे छलकते थे,
कंचे भी गुम हो गए हैं कहीं और गिल्ली डंडा भी अब टूट गया है.
कि यूं जो बात करें बीते पल की, देखते हैं कुछ-कुछ छुट गया है,
वो बचपन जो खिलखिलाता था गलियों में, वो कहीं लुट गया है.
अब हम कुछ-कुछ स्मार्ट हो चले हैं, बच्चे अब जल्दी बड़े होने लगे हैं,
वो गलियों में नहीं खेलते, लेकिन हां वो कंप्यूटर पर खेलने लगे हैं.
उन्हें हमारी तरह चोट भी नहीं लगती हैं पैरों और कोहनियों में,
सुना है कुर्सी पर बैठ उनका बचपन अब सुहाना होने लगा है.
बातें मिटटी के खेल से अब स्मार्टफोन और टीवी में सिमट रही है,
मगर मन में एक सवाल...क्या सचमुच बचपन सुहाना हो चला है?
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