फिर आज...सोने की ना-कामयाब कोशिश करता एक परिंदा,
ना चाहते हुए भी नींद को ख्वाबों में ढूंढता एक परिंदा...
एक परिंदा जो कल कभी डाल-डाल कभी पात-पात घूमता फिर रहा था,
आज ख़ामोशी में डूबा हुआ कहीं बाग़-बाग़ घूम रहा है...
वो जो उसके बैठने के ठिकाने हुआ करते थे कभी,
सुना हैं आज जमीं पर धराशायी हुए पड़े हैं कहीं...
कुछ लोग आए थे साथ अपने आरी और कुछ औजार लिए,
मन में लालच और आँखों में पैसों की घनघोर बौछार लिए...
पेड़ काट गए, छाँव बांट गए और साथ ले गए अपने उनका बसेरा,
साथ ले गये वो पंछियों का सुकून और कभी ना हो सकने वाला सवेरा...
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