‘’अरे भाई! चल चाय पीते हैं’’ कहीं पीछे से एक आवाज सुनाई देती है. प्रवेश मुड़कर देखता है तो सचिन दरवाजे पर खड़ा हुआ है और उसकी तरफ ही नजरें किए खड़ा हुआ है. प्रवेश भी बड़ी सहजता से पूछता है “कहाँ चल रहे हैं?” सचिन का जवाब आता है “वहीँ, चाय की गुमटी पर” चाय की गुमटी कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ आपको चमचमाती हुई मेज मिलती है या फिर एकदम साफ़ कप में चाय दी जाती है. यह तो वह जगह हैं जहाँ एक छोटी सी गुमटी होती हैं. अमूमन दो या तीन लोगों के बैठने के लिए बांस के मुड्डों का इस्तमाल होता है बाकि लोग अपनी सुविधानुसार अपनी गाड़ी की सीट पर या वहीँ कोने में ईंटों पर टिकाई फर्श पर बैठ सकते हैं. हा बैठना थोड़ा दुखदाई जरुर होता है लेकिन आपको उसका अहसास नहीं होता. हमारी कहानी के दो पात्र भी कुछ ऐसे ही हैं जो यहाँ चाय की गुमटी पर केवल चाय पीने ही नहीं बल्कि अपनी बातें एकदूजे को बताने, दिनचर्चा को विस्तार से सुनाने और सबसे जरुरी देश के मुद्दों पर बात करने के लिए पहुँचते हैं. यहाँ मौजूद हर शख्स एकदूजे को नहीं जानता है लेकिन जैसे ही चाय का वो आधा धुला हुआ गिलास चाय के साथ हाथ में आता है, उसका वहां खड़े हर...